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Tuesday, October 26, 2010

جین آسٹن کے پیچھے کون تھا؟

جین آسٹن نے اپنی زندگی کے دورن 6 ناول مکمل کیے جن میں سے دو ان کی موت کے بعد شائع ہوئے۔
آکسفرڈ یونیورسٹی کی ایک پروفیسر نے دعویٰ کیا ہے کہ معروف مصنفہ جین آسٹن کا اسلوب خود ان کا نہیں بلکہ ان کے مدیر کے ہنر کا نتیجہ ہو سکتا ہے۔
آکسفرڈ یونیورسٹی کی پروفیسر کیتھرین سودرلینڈ یہ نتیجہ ایسے گیارہ سو صفحات کے مطالعے کے بعد نکالا ہے جو خود جین آسٹن کی اپنی دستی تحریر ہیں اور اب تک غیر مطبوعہ ہیں۔
ان کا کہنا ہے کہ مسودوں میں دھبے اور کاٹ چھانٹ کے بعد ’گرامر کے لحاظ سے عمدہ تصحیح‘ ملتی ہے۔
سودر لینڈ کہتی ہیں کہ ’ایما اینڈ پرسوایشن میں جس نوع کا نکتہ آفرینی پر مبنی عمدہ اسلوب اور اوقاف کا استعمال ہے وہ ان مسودوں میں دکھائی نہیں دیتا‘۔
سودر لینڈ جو یونیورسٹی میں انگریزی زبان اور ادب کے شعبے کی پروفیسر ہیں کہتی ہیں کہ ان کی اس تحقیق سے ثابت ہوتا ہے کہ جین آسٹن ’صاحبۂ اسلوب‘ مصنفہ نہیں تھیں۔
ان کا کہنا ہے کہ اس یہ بھی ثابت ہوتا ہے کہ کوئی اور بھی تھا جو ادارت یا ایڈٹنگ کے عمل میں بھر پور انداز سے شریک تھا۔
سودر لینڈ کو قوی گمان ہے کہ یہ ہنرمندی دکھانے والے شخص ولیم گیفرڈ ہو سکتے ہیں جو اس وقت جیس آسٹن پبلشر جون مرے دوم کے ہاں بطور ایڈیٹر کام کر رہے تھے۔
یہ تحقیق اس منصوبے کا حصہ ہے جس کے تحت جین آسٹن کے تمام مسودوں کو آن لائن دستیاب کیا جانا ہے۔
منصوبہ کنگز کالج لندن، بودلین لایبریری آکسفرڈ اور برٹس لائبریری لندن کی شرکت سے شروع کیا گیا تھا اور 25 اکتوبر کو اس کا اجرا ہونا ہے۔
پروفیسر سودرلینڈ کو جین آسٹن کا ماہر تصور کیا جاتا ہے اور اب ان غیر مطبوعہ اوراق کے مطالعے سے انہیں جین آسٹن کی صلاحتیوں کے مزید قریبی مشاہدے کا موقع ملا ہے۔
ان مسودوں کے مطالعے سے انہیں یہ جاننے کا بھی موقع ملا ہے کہ جین آسٹن تجربات کرنے، نئی سے نئی اختراعات اور نئی سے نئی چیزوں کو سامنے لانے کی کوشش کرتی تھیں۔
اس مطالعے سے یہ بھی انکشاف ہوتا ہے کہ وہ اپنے مطبوعہ ناولوں کے برخلاف گفتگو اور مکالمے لکھنے پر زیادہ دسترس رکھتی تھیں۔ جین آسٹن نے (1817-1775) اپنی زندگی کے دورن چھ ناول مکمل کیے جن میں سے دو ان کی
موت کے بعد شائع ہوئے۔
 
مرضیہ جعفر

Monday, October 25, 2010

मै कौन हुं ?

दिल में लाख जख़्म... जो अब नासूर बन गए हैं...
दर्द तो है... लोकिन ख़ामोश हूं मैं...
क्योंकि आवाज़ ही नहीं मेरी सिसकियों भी दबा दी गई है...
मेरे हालात का पुरसाने हाल कौन है?
कौन है?
मेरी ख़ामोश सिसकियों को सुनने वाला
इंसाफ़ की चौखट ने भी मुझे रूसवा कर भटकने के लिए छोड़ दिया...
मेरी रूदाद सुनकर आप तो समझ ही गए होंगे...
कौन हूं मै!
जी हां मैं हूं बारगाहे इलाही...
मै हूं ना इंसाफ़ की सताई
मैं हूं बाबरी मस्जिद..
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आज़ाद भारत में 22-23 दिसंबर 1949 की तारिक शब में अचानक किसने जम्हूरियत के सीने पर ऐसा ख़ंजर मारा कि उसी रात से नमाज़ का सदियों पुराना सिलसिला बंद हो गया... चैन-व-अमन की मिसाल कहा जाने वाला ये मुल्क तो आज आज़ाद है, लेकिन मेरी चौखट पर ताला डालकर मुझे ग़ुलामी की ज़जीर में हमेशा के लिए जकड़ दिया गया... और इस दर पर सजदों पर पाबंदी लगाकर बुत परस्ती शुरू कर दी गई... सिक्का-ए-रहजुल वक़्त के हुक़्म के मुताबिक लगाए गए ताले को खोल दिया गया... लेकिन सजदे पर लगाई गईं पाबंदियां बरक़रार रहीं... लम्बी क़ानूनी जंग के बाद अदालते उज़मा से इंसाफ़ की एक किरण नज़र आई थी लेकिन हाल में सुनाऐ फ़ैसले ने क़ौम को अश्क़बार कर दिया अदलिया को शर्मसार कर दिया और मुझे मिस्मार कर दिया... लेकिन मुझे यक़ीन है कि सजदों की तड़प एक दिन ज़रूर इंसाफ़ की दहलीज़ पर कामयाबी और कामरानी हासिल करेगी...
जाए मस्जिद मस्जिद थी...
मस्जिद है...
और मैं इंसाफ़ का इंतज़ार कयामत तक करती रहूंगी...
क्योंकि मेरे साथ जो हुआ वो इंसाफ़ नहीं था... नहीं मानती मैं इसे इंसाफ़... जिसकी बुनियाद ही कमज़ोर हो ऐसा इंसाफ़ किस काम का... मेरी नज़र में विवादित ढ़ांचे से जुड़े दोनो समुदाओं के साथ ना इंसाफ़ी हुई है...
अगर फ़ैसले पर ग़ौर करे तो ये फ़ैसला आस्था के आधार पर किया गया है... जबकि अदालत सुबूतों और गवाहों के बिनाह पर फैसला सुनाती है... और दूसरा ये की जब वहां मस्जिद यानि मैं थी ही नहीं तो परिसर में एक हिस्सा सुन्नी पर्सनल बोर्ड को क्यों दिया गया? और रही निर्मोही आखाड़े की बात तो वहां पुजा-पाठ साधू-संत करते है तो वो हिस्सा तो बरक़रार रहेगा... लेकिन मुझे भीख दी गई है... इसको क्या कहेंगे आप फ़ैसला या समझौता... मेरी नज़र में ये सिर्फ़ ना इंसाफ़ी है और कुछ नहीं...बहरहाल राष्ट्रीय एकता और अखंडता के मद्देनज़र इस ना इंसाफ़ी के फ़ैसले पर सिर्फ़ सब्र किया जा सकता है ना की इसे अपनाया जाए...
मिर्ज़ा मरज़िया जाफ़र