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Sunday, April 18, 2010

राष्ट्रपिता हमें यही सिखावें



राष्ट्रपिता हमें यही सिखावें
मिलजुल कर सब जीवन बितावें
किंतु इंसा-इंसा का ख़ून बहावें
हर तरफ़ ख़ूनी मंज़र नज़र आवे

देश के प्रेमी देश मीटावें
रोज़ नए-नए भेष बनावें
तनिक नही इनको भय है
चारों दिशा में इनकी जय है


कभी जलावें नंदी ग्राम
कभी मचावें उड़ीसा में कोहराम
कभी गोधरा को भड़कावें
कभी करें भोली जनता पर वार

कभी चलावें गोला बारी
कभी चलाए बम से काम
इस देश का क्या होगा भगवान
जिसमें रहते है अनेक भोले इंसान


रोज उजाड़े मांग के सिंदूर
सूनी करें ये मां की गोद
रोज़ किसी को अनाथ बनावें
रोज़ करें ये अत्याचार

मां बहने और बेटी को
फेकें रोज़ वैहशी की ओर
शर्म लाज अब कैसे बचावें
कफ़न होतो तन को छुपावें

अतिथि देवों भवा का करके हनन
विदेशी महिलाओं को सताने का है चलन
भारत पर लगा शोषण नाम का कलंक
ऐसी घटनाओं का होता है हर रोज़ जनम

मौत के बाद भी चीर हरण
स्त्री जात का फूटा ऐसा करम
स्वम् पर झेले सारी विपदा
फिर भी नही है कोई शिकवा

विद्यार्थियों का है हाल बेहाल
विद्या की अर्थी सजावें सुबहो शाम
सहपाठी पर करके वार
जीवन में लाएं अंधकार

अश्लीलता है पाठशालाओं में
तकनीकी का है इसमें हाथ
यौन शिक्षा को बढ़ावा देने का
आज सामने है अंजाम

राम नाम पर मचा बवाल
उनके अस्तित्व पर उठने लगे सवाल
जबकि राष्ट्रपिता के अंतिम शब्द थे
हे राम... हे राम... हे राम
(मरज़िया जाफ़र)

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